किराये का घर

जब हम “किराए का मकान” लेते है तो “मकान मालिक” कुछ शर्तें रखता है

  1. मकान का किराया समय पर देना होगा।
  2. मकान में गंदगी नही फैलाना।
  3. मकान मालिक जब चाहे मकान को खाली करवा सकता है !!
    उसी प्रकार परमात्मा (मालिक) ने भी हमें जब ये शरीर दिया था यही शर्ते हमारे लिये देकर भेजा हैः~
  4. किराया है। (भजन -सिमरन)
  5. गन्दगी (बुरे विचार और बुरी भावनाये) नही फैलानी।
  6. जब मर्जी होगी परमात्मा अपनी आत्मा को वापिस बुला लेगा !! मतलब ये है कि ये जीवन हमे बहुत थोड़े समय के लिए मिला है, इसे लड़ाई -झगड़े करके या द्वेष भावना रखकर नही, बल्कि प्रभु जी के नाम का सिमरन करते हुए बिताना चाहिए !
    हे मेरे सतगुरुजी ! इतनी कृपा करना कि आपकी आज्ञा में रहे और भजन -सुमिरन करते रहे!!
    “ए जन्म मानुखा जो मिलिया।
    गुरु किरपा दा प्रशाद समझ।
    बे कदरी ना कर स्वासा दी।
    जप नाम जीवन दा राज समझ
    विचार चाहे कितने
    भी उत्तम क्यों ना हो
    वह सार्थकतभी माने जाते हैं
    जब उनकी झलक हमारेव्यवहार में दिखती हैं।

मदद


एक समय मोची का काम करने वाले व्यक्ति को रात में भगवान ने सपना दिया और कहा कि कल सुबह मैं तुझसे मिलने तेरी दुकान पर आऊंगा।
मोची की दुकान काफी छोटी थी और उसकी आमदनी भी काफी सीमित थी। खाना खाने के बर्तन भी थोड़े से थे। इसके बावजूद वो अपनी जिंदगी से खुश रहता था।
एक सच्चा, ईमानदार और परोपकार करने वाला इंसान था। इसलिए ईश्वर ने उसकी परीक्षा लेने का निर्णय लिया।
मोची ने सुबह उठते ही तैयारी शुरू कर दी। भगवान को चाय पिलाने के लिए दूध, चायपत्ती और नाश्ते के लिए मिठाई ले आया। दुकान को साफ कर वह भगवान का इंतजार करने लगा। उस दिन सुबह से भारी बारिश हो रही थी। थोड़ी देर में उसने देखा कि एक सफाई करने वाली बारिश के पानी में भीगकर ठिठुर रही है। मोची को उसके ऊपर बड़ी दया आई और भगवान के लिए लाए गये दूध से उसको चाय बनाकर पिलाई।
दिन गुजरने लगा। दोपहर बारह बजे एक महिला बच्चे को लेकर आई और कहा कि मेरा बच्चा भूखा है इसलिए पीने के लिए दूध चाहिए। मोची ने सारा दूध उस बच्चे को पीने के लिए दे दिया। इस तरह से शाम के चार बज गए। मोची दिनभर बड़ी बेसब्री से भगवान का इंतजार करता रहा।
तभी एक बूढ़ा आदमी जो चलने से लाचार था आया और कहा कि मैं भूखा हूं और अगर कुछ खाने को मिल जाए तो बड़ी मेहरबानी होगी। मोची ने उसकी बेबसी को समझते हुए मिठाई उसको दे दी। इस तरह से दिन बीत गया और रात हो गई।
रात होते ही मोची के सब्र का बांध टूट गया और वह भगवान को उलाहना देते हुए बोला कि “वाह रे भगवान सुबह से रात कर दी मैंने तेरे इंतजार में लेकिन तू वादा करने के बाद भी नहीं आया। क्या मैं गरीब ही तुझे बेवकूफ बनाने के लिए मिला था।”

तभी आकाशवाणी हुई और भगवान ने कहा कि ” मैं आज तेरे पास एक बार नहीं, तीन बार आया और तीनों बार तेरी सेवाओं से बहुत खुश हुआ। और तू मेरी परीक्षा में भी पास हुआ है, क्योंकि तेरे मन में परोपकार और त्याग का भाव सामान्य मानव की सीमाओं से परे हैं।”
शिक्षा
किसी भी मजबूर या ऐसा व्यक्ति जिसको आपकी मदद की जरूरत है उसकी मदद जरूर करना चाहिए। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि ‘नर सेवा ही नारायण सेवा है’। और मदद की उम्मीद रखने वाले, जरूरतमंद और लाचार लोग धरती पर भगवान की तरह होते हैं। जिनकी सेवा से सुकून के साथ एक अलग संतुष्टी का एहसास होता है..!!

बाज़ीगर और कठपुतलियांँ

जिस बाज़ीगर (परमात्मा) ने कठपुतलियों का खेल रचा होता है वे सारी कठपुतलियाँ उसके थैले में होती है वह अपनी कठपुतलियों को थैलें में से बाहर निकालता है और उनको टेबल पर यानी दुनिया में सजाकर खुद परदे के पीछे बैठ जाता है हर कठपुतली एक डोर से बँधी होती है पर समस्या यह है कि कठपुतली यह नहीं समझती कि वह कठपुतली है कठपुतली इस बात से बेखबर है कि वह एक डोर से बँधी है जिसे कोई परदे के पीछे बैठा खींच रहा है उसे इसका जरा भी एहसास नहीं हैं कठपुतली को अपने नाचने का अहंकार है आज हमारी भी यही हालत है हम सब जीव मालिक के हाथ की कठपुतलियाँ है हम सब अपने कर्मों के अनुसार नाच रहे हैं और हम सोच लेते हैं कि हमें कौन नचा सकता है हम सोचते हैं कि मैंने यह किया मैंने वह किया हमें इसका कोई ज्ञान नहीं है कि असल में कौन हमसे यह सबकुछ करवा रहा है आज हमने अपने अंदर इतनी हौंमैं पैदा कर ली है कि हम समझने लगे हैं कि मैं अपने बलबूते पर ही ऐसा सोच रहा हुँ और मैंने खुद ही सबकुछ किया है जो भी जीव जन्म लेते हैं वे सभी नाच रहे हैं पर जिन्हें यह ज्ञान हो जाता है कि उनके पीछे डोर है और परदे के पीछे नचानेवाला बैठा है तो वह कठपुतली उसके हुक्म के अनुसार नाचती हैं केवल गुरुमुखों को भजन सिमरन द्वारा यह ज्ञान हो जाता है कि वह मालिक ही हमें इस संसार में नचा रहा है। बाकि सब इसी बुलावे में जीवन जीते है कि मैं कर रहा हु। जब कि सच कुछ और ही होता है।

गुरु में विश्वास अटल रखना है


जब एक मटका खरीदा जाता है तो उसे पत्थर से बजाके परखा जाता है।पर यदि उस पत्थर की जगह मिट्टी के ठेलें से मटके को बजाया जाए तो मटके से पहले वह मिट्टी का ठेला टूट कर बिखर जाएगा।गुरु को परखने के पहले सिख को मजबूत पत्थर बनना होगा।हमारा तो ख़ुद का विश्वास मिट्टी की तरह कच्चा है और गुरु को परखने निकले हैं।पहले हमें पत्थर के जैसा बनना होगा चाहे कर्मों की कितनी भी मार पड़े पर अपने गुरु से विश्वास नहीं डोलना चाहिए ।चाहे कर्मों की वजह से कितने दुख आ जाए पर अपने गुरु में विश्वास अटल रखना है तभी गुरु की बख्शीश और विश्वास प्राप्त होगा।जो पत्थर हथौड़े की मार सहता है वही पूजने योग्य बनता है। जो सोना भट्टी में जलता है वही गहना बनकर पहनने लायक होता है।इसलिए जब भी कोई दुख आये तकलीफ आये समझ लेना गुरु हमें परख रहा है।हमारी कमजोरी यही है कि हम गुरु को तो मानते हैं पर गुरु की नहीं मानते और गुरु की मानना है ही सच्ची भक्ति करना,अमृतवेले उठना,नाम जपना, जो गुरु की यह बात मानेगा उसे संसार का कोई दुख हिला नहीं सकेगा। फिर उसे इस लोक के सुख प्राप्त होता है और परलोक भी जाने का रास्ता तैयार होता है , इसलिए गुरु की मानो अमृतवेला संभालो अपने गुरु पे अटूट विश्वास रखो, गुरु चाहे लाड़ करे सुख दे या दुख दे विश्वास पक्का रखो…।

“निमाणा-निताणा”

एक बार एक सत्संगी दरबार साहिब आ रहा था।लंगर के लिये कुछ रसद भी साथ उठा कर आ रहा था। यह गुरु अर्जुन देव जी के समय की बात है। गर्मी के दिन थे।अमृतसर शहर से थोड़ा पहले वह एक बृक्ष की छावं में आराम करने बैठा।

गुरु के दर्शन के लिए वह पहली बार आ रहा था, सो गुरु साहब को पहचानता नही था। बोझ उठा कर दूर से चल कर आ रहा था, थक गया था, बृक्ष के नीचे बैठ कर वह अपने पैर दबाने लगा। गुरु अर्जन देवजी का भी उधर से गुजरना हुआ। उसी बृक्ष के नीचे वो भी बिश्राम के लिये रुके।

उस व्यक्ति को पैर दबाते देख कर गुरु साहब पूछते है कि साईं क्या बात है, पैर क्यूँ दबा रहे हैं? वह व्यक्ति बोला कि दूर से चल कर आ रहा हूँ, लंगर के लिए कुछ रसद भी चक के लाया हूँ, थक गया हूँ, इस लिए पैर दबा रहा हूँ। गुरु अर्जुन देवजी ने देखा कि उस गर्मी में भी वह इतना बोझ चक के आ रहा है, सच में थक गया होगा, तो गुरु साहब ने कहा, साईं लाओ मैँ आपके पैर दबा देता हूं। और गुरु अर्जुन देव जी उस व्यक्ति के पैर दबाने लगे। फिर जब बिश्राम के बाद चलने लगे तो गुरुजी उनसे कहते हैं कि लाइए में आप का रसद का बोझ उठा चलता हूं, मैं भी दरबार साहब जा रहा हूँ। वो व्यक्ति सोचने लगा कि शायद यह कोई मज़दूर होगा, इसके साथ मजदूरी की बात पहले ही तय की जानी चाहिये। पर गुरु साहब कहने लगे की कोई बात नही जितनी चाहे दे देना।दरबार साहिब पहुंच कर गुरु साहब उसका बोझ उसको थमा कर चल पड़े। वह व्यक्ति पुकारता रहा कि मजदूरी ले लो मजदूरी ले लो। शाम जब सत्संग के समय उस व्यक्ति को दर्शन का मौका मिला तो गुरूसाहब को वह पहचान गया, और रो रो कर गुरूसाहब के चरणों मे गिर पड़ा, कहने लगा मालिक गुनाह बक्श दो, गुनाह बक्श दो। गुरु साहब मुस्करा कर कहने लगे, साईं आप दरबार साहिब गुरु के दर्शन के लिए आ रहे थे, मैंने तो आप की सहायता करके पुण्य कमाया है, मैं तो खुद आपका शुक्रगुज़ार हूँ, जो आप ने मुझे पुण्य कमाने का अवसर दिया।
इस लिये गुरबाणी में आता है-
“माण होंदया होइ निमाणा, ताण होंदया होइ निताणा।”
अर्थात, अगर आपका समाज मे कुछ आदर मान है तो निवां रहे, और अगर आप के पास शक्ति है तो निशक्त बना रहे।

कुछ दिन बाद वापिस ले ली जायेॅगी

क्यूंकि मान और शक्ति दोनो ‘उसकी’ दी हुई हैॅ मौत के वक्त ले ली जाएगी

सतगुरू सबको देत हैं, लेता नाहीं कोए

सतगुरू सबको देत हैं, लेता नाहीं कोए

यदि सालों साल भजन सिमरन करते हुए भी हमें आत्मिक आनंद और शांति नहीं मिल रही है, तो इसके कारणों की जाँच तो हमें अवश्य करनी चाहिये।

जैसे लोहा, यदि पारस को छू जाये तो फौरन सोना बन जाता है। लेकिन अगर लोहा खोटा हो या उस पर जँग लगी हुई हो तो लोहे और पारस के मिलन में जँग की रूकावट आ गई, जब लोहे ने पारस को छुआ ही नहीं तो पारस क्या करे, सोना कैसे बनाये ?

पलटू पारस क्या करै, जो लोहा खोटा होये
सतगुरू, सबको देत हैं, लेता नाहीं कोए
सन्त पलटू साहिब जी हमें शीशा दिखाते हुए चेता रहे हैं, कि हम सभी का मन खोटे लोहे की तरह है! दिखावा तो हम सच्चे गुरू भक्त होने का करते हैं, लेकिन मन पे विषय विकारों की खोट यानि मैल चढ़ी हुई है! फिर ये मैला मन सोना कैसे बने, निर्मल कैसे होवे?
सतगुरू दाता तो हर पल दातें बाँट रहे हैं, लेकिन अफसोस हमारे पास लेने का टाईम ही नहीं है

” हम निरगुणी, मनूर, अति फीके, मिल सतिगुर पारसु कीजै”

गुरू साहिब अपने हवाले से हमें समझा रहे हैं, कि हमारे अन्दर कोई भी गुण नहीं है! फिर हम तो लोहा भी नही हैं बल्कि मनूर, लोहे पर चढ़ी हुई जँग या मैल के समान हैं! ऐ मेरे सतगुरू आप ही दया करो और हमें भी अपना रूप बना लो!

पारस में अरु सन्त में, बड़ो अन्तरो जान
वो लोहा कँचन करै, ये कर ले आप समान
कबीर साहिब जी फरमाते हैं कि पारस में और सन्त सतगुरू में बड़ा भारी फर्क है, वो कैसे? पारस तो लोहे को केवल सोना बना सकता है! मगर सतगुरू अपने सेवकों को प्रेम और भक्ति की दात बख्श कर मालिक का रूप बना देते हैं

सतगुरू ने हमें सच्चे नाम का दान बख्शते समय अच्छी तरह से समझा दिया था, कि जीवन में पवित्र आचरण रखते हुए, सात्विक भोजन करना है, भजन सिमरन हर रोज़ करना है! लेकिन हमारी यादाश्त बड़ी कमज़ोर है, हमने तो अपने सतगुरू से किये हुए वायदे भी भुला दिये हैं! याद करो और वादे निभाओ, तभी हम अपने सच्चे घर सचखण्ड जा पायेंगें, जो भी सेवक करनी में लगता है, वो अपने सतगुरू की रहमतों को पल पल महसूस करता है! सच्ची खुशी और आनन्द हासिल कर लेता है!

लोक सुखीऐ, परलोक सुहेले
नानक, हरि प्रभ, आपहि मेले।

गुरू के कहने पर जो चलता है उसका लोक यानी संसार में भी सुखी हो जाता है और परलोक यानी जहा हमे जाना है हमारे असल घर(जहा जन्म मरण का चक्कर नही है) वो भी सुखी हो जाता है। गुरू की बताई सहज भक्ति से प्रभु से मिलाप हो जाता है।

मन की बाँसुरी

मन की बासुरी

” बाँस की बाँसुरी में से आवाज निकलती है क्योंकि वह खोखली होती है। ठोस लकड़ी का टुकड़ा बाँस की बाँसुरी वाला काम नहीं कर सकता। अभ्यास के समय मन को विचारों से ख़ाली कर देना बाँसुरी बन जाने के समान है। जब अपने आप को अन्तर में विचारों से पूरी तरह ख़ाली करके भजन सुमिरन करते हैं तो हम अन्दर शरीर में निरन्तर गूंज रही शब्द की ध्वनी को सुनने के काबिल बन जाते हैं और हमें , हमारे अन्दर शब्द की ध्वनी पूरे ज़ोर से सुनायी देने लगती है। यह शब्द की ध्वनी इतनी प्यारी, सुरीली और मीठी होती है कि हम इसमें लीन होकर धीरे-धीरे शब्द ( परमात्मा ) में समा जाते हैं और सचखण्ड के वासी बन जाते हैं। फिर हमारा न जन्म होता ना मरण होता है। हम आत्मा से वो एक ही परम आत्मा बन जाते हैं। “

:- हुज़ूर चरन सिंह जी महाराज

कहने का भाव है कि जब तक हम अपने आप को मन से खाली नहीं करते तब तक वो अनहद नाद जो हमारे अपने अंदर हो रहा है उसे सुन ही नहीं पाते।

अभी हमारा मन दुनिया को चाहतों से भरा पड़ा है, दुनिया के रिश्तों नातों के प्यार में फसा पड़ा है। दुनिया की चीज़ों को पाने के लिए बाहर ही बाहर दिन रात दौड़ लगा रहा है। जैसे हिलते हुए पानी में हम अपना अक्ष (परछाई) नही देख सकते जब तक की पानी ठहर नही जाता। ऐसे ही जब तक मन ठहर नही जाता, भाव खाली नही हो जाता है । तब तक हम परमात्मा की तरफ से आ रही उस अनहद नाद को सुन नही सकते है।

मन और जल का एक स्वभाव होता है। जल को जैसे छोड़ते है तो वह नीचे की तरफ जाता है । मन का स्वभाव भी ऐसा ही है जैसे ही उसे ढीला छोड़ा वह नीचे की तरफ इंद्रियों के भोगों में जाता है। जैसे जल को ऊपर चढ़ाने के लिए यंत्र (मशीन) की जरूरत होती है। वैसे ही मन को चढ़ाने के लिए मंत्र (वक्त के पूर्ण गुरु के दिए हुए मंत्र) की जरूरत होती है। तब ही मन बासुरी जैसे खाली होगा तब ही हम अपने अंदर अनहद नाद सुन पाएंगे। जो हर इंसान के अंदर है चाहे किसी भी जाति का हो, धर्म का हो, देश का हो। संतो की शिक्षा सबके लिए एक ही है।

मौत की खुशी किसे होती है?


अगर कोई आदमी इस दुनिया में खुशी-खुशी मरता है तो केवल शब्द का अभ्यासी ही बाकी कुल दुनिया बादशाह से लेकर गरीब तक रोते हुए ही जाते हैं।

ढिलवाँ गाँव का जिक्र है। एक स्त्री शरीर छोड़ने लगी तो अपने घर वालों को बुलाकर कहा, ‘सतगुरु आ गए हैं, अब मेरी तैयारी है। उम्मीद है कि आप मेरे जाने के बाद रोओगे नहीं क्योंकि मैं अपने सच्चे धाम को जा रही हूँ। इससे ज्यादा और खुशी की बात क्या हो सकती है कि सतगुरु ख़ुद साथ ले जा रहे हैं। ‘ उसके बेटे कहने लगे कि हमारा क्या होगा ?तो वह शांति से बोली, तुम अपना आप खुद सँभालो।
_जब मौत के वक्त गुरु सामने आ जाए तो और क्या चाहिए ?अगर आप टाट का कोट उतारकर मखमल का कोट पहन ले तो आपको क्या घाटा है अगर आप इस गंदे देश से निकलकर कुल मालिक के देश में चले जाएं तो आपको और क्या चाहिए?

इसीलिए अगर जीते जी कुछ करना है तो पूर्ण गुरु / वक्त के गुरु के कहे अनुसार जीते जी मरने के तैयारी कर लो। परमात्मा को याद कर लो । संत महात्मा कहते है कि जिसने जीते जी रिश्ता जोड़ लिया। वो ही मौत के वक्त परमात्मा को पहचान पाता है । बाकि किसी को पता ही चलता कि कोन आया, कहा ले जायेगा ।

परमात्मा से क्या मांगे

इस संसार में हमें परमात्मा से मांगने के लायक कुछ भी नहीं अगर कुछ मांगना ही है तो केवल एक चीज कि मालिक अंतर में अपने दर्शनों की दात बख्श । यदि संसार के लोग हमारे साथ कुछ ग़लत करते हैं तो गलत बो नहीं करते बल्कि हम उस समय अपने पुराने कर्मों का भुगतान कर रहे होते हैं और हम पूरे संसार को अपनी मर्जी के अनुसार बदल नहीं सकते इसलिए हमें वहां से चुप चाप चले जाना चाहिए ।


फिर उदाहरण दिया कि यदि आपका बच्चा यदि नाली में गिर जाता है तो आप सबसे पहले क्या करोगे पहले बच्चे को बाहर निकालोगे या नाली को साफ करोगे ।
और फिर कलयुग में किसकी भक्ति करनी है तो कहा कि

अब कलू आयो रे इक नाम बोवो बोवो

कि इस कलयुग में केवल नाम का बीज बोना है और हमें स्वयं को ही अपने लिए भक्ति करनी पड़ेगी कोई दूसरा हमारे लिए भक्ति नहीं कर सकता इसमें किसी भी प्रकार का adjustment नहीं होता ऐसा नहीं हो सकता कि हमारे घर का कोई सदस्य भक्ति करे और उसका फल हमें मिल जाए।हम भक्ति करेंगे तो उसका फल हमें ही मिलेगा किसी और को नहीं ।

कलयुग केवल नाम अधारा,सिमर-सिमर नर उतरहिं पारा।

और आपके गुरु कितने भी पहुंचे हुए क्यों न हों पर भक्ति तो हमें स्वयं ही करनी पड़ेगी वो भी हमारे लिए भक्ति नहीं कर सकते जिस प्रकार यदि किसी बच्चे की परीक्षा में उसके माता-पिता सबक को आसान बना सकते हैं पर परीक्षा बच्चे को ही देनी पड़ती है ठीक उसी प्रकार सतगुरु हमारे रुहानी मार्ग में हमारी मदद तो कर सकते हैं पर भक्ती तो हमें स्वयं ही करनी पड़ेगी, अपने कर्मों का भुगतान भी हमें स्वयं ही करना पड़ेगा वो भी कब संभव होगा जब हम नाम की कमाई करेंगे शब्द की कमाई करेंगे और मालिक को जिस जीव के आवागमन का चक्र समाप्त करना होता है उसे, दीनता, गरीबी और तिरस्कार के उपहार देता है। इसलिए हमें कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि हम तो इतनी सेवा करते हैं भजन सिमरन में भी पूरा समय देते हैं फिर भी हमारे ऊपर इतने दुख तकलीफ और मुसीबत क्य़ों आती है।

किसी भी दुख तकलीफ में हमें मालिक को कोसना नहीं है बल्कि उसका शुकराना अदा करना चाहिए क्योंकि दुख- तकलीफ purification की ही process है। और हमारे सतगुरु हमें साफ कर के बहुत जल्दी हमें अपने निज घर पहुंचाना चाहते हैं

मन में दीनता और अजीजी रखना क्यों जरूरी है?


सब महात्मा हमें यही उपदेश देते हैं कि इस मनुष्य-जन्म में आकर अपनी देह के अंदर मालिक की खोज करो लेकिन हम देह के अंदर मालिक को ढूँढने के बजाय उल्टे इस देह के ही मान और अहंकार में फँस जाते हैं। ज़रा गौर करके देखें कि हम इस शरीर में बैठकर किस चीज़ का मान और अहंकार करते हैं? हमने किसी का बुढापा नही देखा? क्या हमें भी इस बुढापे की उम्र नही पहुँचना है? स्वास्थ्य और तन्दुरुस्ती का गरूर करते है? क्या अस्पतालों में बीमारों की हालत नही देखी? रुपये-पैसे का अहंकार करते है? क्या बड़े-बड़े राजा-महाराजाओ सेठ-साहूकारों को कंगालों की तरह सड़कों पर भटकते नही देखा? फिर हम क्या दुनिया की हुकूमत या इज़्ज़त और मान-बड़ाई का अहंकार करते हैं? क्या बड़े-बड़े लीडरों नेताओं और तानाशाहों को फाँसी के तख्तों पर चढ़ते नहीं सुना या गोलियों का शिकार बनते नहीं देखा? रातों-रात अचानक हुकूमत के तख्ते पलट जाते हैं दूसरी पार्टी उनको उठाकर जेलखानों में डाल देती है फिर हम गरूर और अहंकार किस बात का करते हैं? कबीर साहिब समझाते है:-
“लकड़ी कहै लुहार सों तू मति जारे मोहिं। इक दिन ऐसा होयेगा मैं जारौगी तोहिं।”
“माटी कहै कुम्हार को तू क्या रुँदे मोहिं। इक दिन ऐसा होयेगा मैं रुँदूँगी तोहिं।
लुहार लकड़ी को जला-जलाकर उसके कोयले बनाता है लेकिन लकड़ी उससे कहती है कि कभी उस वक्त को भी अपनी आँखों के सामने रखकर सोच जब मैं तुझे साथ लेकर तेरे भी इसी तरह कोयले बना दूँगी। कुम्हार मिट्टी को रौंद-रौंदकर उसके बर्तन बनाता है लेकिन मिट्टी उससे कहती है कि एक दिन मै भी तुझे अपने साथ लेकर इसी तरह रौंद डालूँगी। स्वामी जी महाराज भी यही फ़रमाते है:- “मन रे क्यों गुमान अब करना तन तो तेरा ख़ाक मिलेगा चौरासी जा पड़ना।” महात्मा इसलिये हमें उपदेश देते हैं कि मन में हमेशा नम्रता और दीनता रखनी चाहिये। जितनी दीनता और नम्रता हमारे अंदर होगी उतना ही हमारा ख्याल मालिक की भक्ति की ओर जायेगा और हमें मालिक की बख्शीश मिलेगी। बाइबल में भी इस नम्रता और दीनता के बारे में लिखा है:- “धन्य हैं वे जो अंतर में दीन हैं क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्ही का है।” स्वामी जी महाराज जी का भी यही उपदेश है:- “दीन गरीबी चित में धरना काम क्रोध से बचना।” गुरु अर्जुन साहिब प्रार्थना करते है:- “कहो नानक हम नीच करमा सरण परे की राखहो सरमा।”
उच्च कोटि के महात्मा होकर अपने बारे में कितने नम्र और दीनतापूर्ण शब्दों का उपयोग करते हैं। गुरु नानक साहिब अपनी वाणी में कई जगह अपने आप को लाला गोला (सेवक और गुलाम) दासों का दास नीच करमा कहते हैं। हमें इन महात्माओं से शिक्षा लेनी चाहिये जो धुरधाम पहुँचकर कुलमालिक बनकर भी दम नही मारते। हमारे हाथ कोई साधारण सी भी सत्ता या हुकूमत आ जाये तो हम इंसान को इंसान ही नही समझते हमारा ज़मीन पर चलना ही मुश्किल हो जाता है। कबीर साहिब समझाते है:- “बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मिलिया कोय। जो दिल खोजौं आपना मुझसा बुरा न होय।
“कबीर सब तें हम बुरे हम तें भल सब कोय। जिन ऐसा करि बुझिया मित्र हमारा सोय।”
महात्माओं का हमें समझाने का सिर्फ यही मतलब है कि किसी चीज़ का घमंड और अहंकार नही करना चाहिये। इंसान के जामे में बैठकर मन में नम्रता दीनता और आजिज़ी रखनी चाहिये और ‘नाम’ की कमाई करनी चाहिये क्योंकि नाम की कमाई ही हमारा साथ देगी और तभी हमारा देह में आने का मक़सद पूरा हो सकेगा। दादू साहिब का कथन है:- “क्या मुँह ले हँसि बोलिये दादू दीजै रोइ। जनम अमोलक आपणा चले अकारथ खोइ।”
यही महात्मा चरनदास जी कहते है:-
“हाथी घोड़े धन घना चंद्र मुखी बहु नारि। नाम बिना जम लोक में पावै दुक्ख अपार।
यही गुरु नानक देव जी कहते है:-
“बिन नावै को संग न साथी मुकते नाम धिआवणिआ।

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